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स्मार्त सम्प्रदाय में आदि शंकराचार्य को माना जाता है शिव का अवतार: स्वामी नरेन्द्रानंद

  • श्री आदिगुरु शंकराचार्य भगवान का जन्मोत्सव संतों ने मनाया, काशी सुमेरु पीठ में सन्त और विद्वत समाज की संगोष्ठी

वाराणसी। श्री आदिगुरु शंकराचार्य भगवान का जन्मोत्सव शुक्रवार को मठों और मंदिरों में उल्लासपूर्ण माहौल में हवन पूजन के बीच मनाया जा रहा है। अस्सी डुमरावबाग कालोनी स्थित काशी सुमेरु पीठ में श्री आदिगुरु शंकराचार्य भगवान का जन्मोत्सव वैदिक रीति के अनुसार मनाया गया। जन्मोत्सव में प्रात:काल राज राजेश्वरी त्रिपुर सुन्दरी पराम्बा भगवती का लक्षार्चन पूजन के बाद श्री आदिगुरु शंकराचार्य भगवान की मूर्ति को वैदिक विद्वानों के स्वस्ति वाचन के बीच समुद्री जल तथा पंचरस से स्नान कराया गया। इसके बाद विधि विधान से पूजन अर्चन किया गया।

इस अवसर पर आयोजित सन्त और विद्वत् समाज की संगोष्ठी में पीठाधीश्वर जगद्गुरू शंकराचार्य स्वामी नरेन्द्रानन्द सरस्वती ने कहा कि भगवान आदिगुरु शंकराचार्य के विचारोपदेश आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित हैं, जिसके अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों ही स्वरूपों में रहता है।

स्वामी नरेन्द्रानंद ने कहा कि स्मार्त संप्रदाय में आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार माना जाता है। इन्होंने ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् पर भाष्य लिखा। वेदों में लिखे ज्ञान को एकमात्र ईश्वर को संबोधित समझा और उसका प्रचार तथा वार्ता पूरे भारतवर्ष में की। उस समय वेदों की समझ के बारे में मतभेद होने पर उत्पन्न चार्वाक, जैन और बौद्ध मतों को शास्त्रार्थों द्वारा खण्डन कर भारत में सात मठों की स्थापना की।

स्वामी नरेन्द्रानंद ने बताया कि कलियुग के प्रथम चरण में विलुप्त तथा विकृत वैदिक ज्ञान विज्ञान को उद्भासित और विशुद्ध कर वैदिक वाङ्मय को दार्शनिक, व्यावहारिक, वैज्ञानिक धरातल पर आदि शंकराचार्य ने समृद्ध किया। राजर्षि सुधन्वा को सार्वभौम सम्राट ख्यापित करने वाले नित्य तथा नैमित्तिक युग्मावतार श्री शिवस्वरुप भगवत्पाद शंकराचार्य की अमोघदृष्टि तथा अद्भुत कृति सर्वथा स्तुत्य है। सतयुग की अपेक्षा त्रेता में, त्रेता की अपेक्षा द्वापर में तथा द्वापर की अपेक्षा कलि में मनुष्यों की प्रज्ञा शक्ति तथा प्राण शक्ति एवम् धर्म औेर आध्यात्म का ह्रास सुनिश्चित है।

यही कारण है कि कृतयुग में शिवावतार भगवान दक्षिणामूर्ति ने केवल मौन व्याख्यान से शिष्यों के संशयों का निवारण किया। त्रेता में ब्रह्मा, विष्णु औऱ शिव अवतार भगवान दत्तात्रेय ने सूत्रात्मक वाक्यों के द्वारा अनुगतों का उद्धार किया। द्वापर में नारायणावतार भगवान कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने वेदों का विभाग कर महाभारत तथा पुराणादि की एवम् ब्रह्मसूत्रों की संरचना कर एवं शुक लोमहर्षणादि कथाव्यासों को प्रशिक्षित कर धर्म तथा आध्यात्म को उज्जीवित रखा।

स्वामी नरेन्द्रानंद ने कहा कि कलियुग में भगवत्पाद श्रीमद् शंकराचार्य ने भाष्य, प्रकरण तथा स्तोत्रग्रन्थों की संरचना कर, विधर्मियों-पन्थायियों एवं मीमांसकादि से शास्त्रार्थ, परकाय प्रवेश कर, नारद कुण्ड से अर्चाविग्रह श्री बदरीनाथ एवं भूगर्भ से अर्चाविग्रह श्रीजगन्नाथ दारुब्रह्म को प्रकटकर धर्म और आध्यात्म को उज्जीवित तथा प्रतिष्ठित किया। दसनामी गुसांई गोस्वामी (सरस्वती, गिरि, पुरी, बन, पर्वत, अरण्य, सागर, तीर्थ, आश्रम और भारती उपनाम वाले गुसांई, गोसाई, गोस्वामी) इनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारी हैं। आदि शंकराचार्य ने पूरे भारत में मंदिरों और शक्तिपीठों की पुनः स्थापना की। हम सभी को भगवान शंकराचार्य के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनुशरण कर सनातन धर्म के संरक्षण एवम् संवर्धन की दिशा सतत प्रयास करना चाहिए। जन्मोत्सव में स्वामी दुर्गेशानन्द तीर्थ, स्वामी अखण्डानन्द तीर्थ, स्वामी इन्द्र देव आश्रम, स्वामी बृजभूषणानन्द सरस्वती आदि संत और दंडी स्वामी उपस्थित थे।

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